سوره ق/متن و ترجمه: تفاوت بین نسخهها
(ترتیل) |
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− | {{متن قرآن| | + | {{متن قرآن/در سوره|ق|50|1|﴿١﴾}}<p></P> |
− | + | به نام خدا که رحمتش بیاندازه است و مهربانیاش همیشگی | |
− | + | قاف | |
− | + | سوگند به قرآن مجید [که محمّد، فرستاده ماست و وقوع قیامت حق است.] (۱)<p></P> | |
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− | + | {{متن قرآن/در سوره|ق|50|2|﴿٢﴾}}<p></P> | |
− | {{متن قرآن| | + | [کفر پیشگان نه تنها ایمان نیاوردند] بلکه از اینکه بیم دهنده ای از خودشان به سوی آنان آمد تعجب کردند و در نتیجه کافران گفتند: این چیزی عجیب است. (۲)<p></P> |
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− | + | {{متن قرآن/در سوره|ق|50|3|﴿٣﴾}}<p></P> | |
− | {{متن قرآن| | + | آیا هنگامی که مردیم و خاک شدیم [زنده می شویم و به حیات دوباره باز می گردیم؟] این بازگشتی دور [از عقل] است. (۳)<p></P> |
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− | آیا | ||
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− | + | {{متن قرآن/در سوره|ق|50|4|﴿٤﴾}}<p></P> | |
− | {{متن قرآن| | + | بی تردید ما آنچه را که زمین از اجسادشان می کاهد، می دانیم و نزد ما کتابی ضبط کننده [همه امور چون لوح محفوظ] است. (۴)<p></P> |
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− | {{متن قرآن| | + | و زمین را گستردیم و کوه هایی استوار در آن افکندیم و در آن از هر نوع گیاه خوش منظر و دل انگیزی رویاندیم، (۷)<p></P> |
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− | {{متن قرآن| | + | و از آسمان آبی بسیار پربرکت و سودمند نازل کردیم، پس به وسیله آن باغ ها و دانه های دروکردنی را رویاندیم. (۹)<p></P> |
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− | {{متن قرآن| | + | و [نیز] درختان بلندقامت خرما را که خوشه های متراکم و روی هم چیده دارند [رویاندیم.] (۱۰)<p></P> |
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− | {{متن قرآن| | + | برای آنکه رزق و روزی بندگان باشد، و نیز به وسیله آن آب سرزمین مرده را زنده کردیم؛ و بیرون آمدنشان [پس از مرگ از خاک گور برای ورود به قیامت] این گونه است. (۱۱)<p></P> |
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− | {{متن قرآن| | + | پیش از اینان [که تو را تکذیب می کنند] قوم نوح و اصحاب رس و [قوم] ثمود [پیامبرانشان] را تکذیب کردند. (۱۲)<p></P> |
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− | پیش از | ||
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− | آیا از آفرینش نخستین عاجز | ||
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− | {{متن قرآن| | + | که با خدا معبودی دیگر قرار داد، پس او را در عذاب سخت اندازید، (۲۶)<p></P> |
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− | {{متن قرآن| | + | همنشینش [از میان شیطان ها] می گوید: پروردگارا! من او را به سرکشی و طغیان وا نداشتم، او خودش [به میل خود] در گمراهی دور و درازی بود. …. (۲۷)<p></P> |
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− | + | {{متن قرآن/در سوره|ق|50|28|﴿٢٨﴾}}<p></P> | |
− | {{متن قرآن| | + | [خدا] می گوید: در پیشگاه من با یکدیگر ستیزه مکنید، بی تردید من تهدید [به عذاب] را پیش از این [از طریق وحی و پیامبران] به شما اعلام کرده بودم. (۲۸)<p></P> |
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− | + | {{متن قرآن/در سوره|ق|50|29|﴿٢٩﴾}}<p></P> | |
− | {{متن قرآن| | + | نزد من فرمان [تهدیدآمیز به اینکه هر کس با حال کفر و شرک وارد آخرت شود حتماً دوزخی است] تغییر نمی یابد و من نسبت به بندگان ستمکار نیستم. (۲۹)<p></P> |
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− | + | {{متن قرآن/در سوره|ق|50|30|﴿٣٠﴾}}<p></P> | |
− | {{متن قرآن| | + | [یاد کن] روزی را که به دوزخ می گوییم: آیا پر شدی؟ می گوید: آیا زیادتر از این هم هست؟ (۳۰)<p></P> |
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− | + | {{متن قرآن/در سوره|ق|50|31|﴿٣١﴾}}<p></P> | |
− | {{متن قرآن| | + | و بهشت را به پرهیزکاران نزدیک می کنند بی آنکه فاصله ای از آنان داشته باشد. (۳۱)<p></P> |
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− | و بهشت را | ||
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− | + | {{متن قرآن/در سوره|ق|50|32|﴿٣٢﴾}}<p></P> | |
− | {{متن قرآن| | + | [به آنان می گویند:] این همان است که [در دنیا] وعده داده می شدید [این جایگاه رفیع] برای هر کسی است که [در دنیا به سوی خدا] باز می گشته [و] حافظ و نگهبان [عهد، پیمان الهی و حقوق خدا و مردم] بوده است. (۳۲)<p></P> |
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− | + | {{متن قرآن/در سوره|ق|50|33|﴿٣٣﴾}}<p></P> | |
− | {{متن قرآن| | + | همان کسی که در نهان از [خدای] رحمان می ترسید و دلی رجوع کننده [به سوی خدا] آورده است؛ (۳۳)<p></P> |
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− | + | {{متن قرآن/در سوره|ق|50|34|﴿٣٤﴾}}<p></P> | |
− | {{متن قرآن| | + | به سلامت در آن وارد شوید، امروز روز جاودانگی است (۳۴)<p></P> |
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− | + | {{متن قرآن/در سوره|ق|50|35|﴿٣٥﴾}}<p></P> | |
− | {{متن قرآن| | + | در آنجا هرچه بخواهند برای آنان فراهم است، و نزد ما [نعمت های] بیشتری است. (۳۵)<p></P> |
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− | در آنجا | ||
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− | + | {{متن قرآن/در سوره|ق|50|36|﴿٣٦﴾}}<p></P> | |
− | {{متن قرآن| | + | و چه بسیار اقوامی را که پیش از آنان هلاک کردیم که از آنان نیرومندتر بودند، و [با نیرویشان] به سرزمین ها رفتند [و آنها را فتح کردند]، آیا توانستند [از عذاب و هلاکت] گریزگاهی بیابند؟ (۳۶)<p></P> |
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− | پیش از | ||
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− | + | {{متن قرآن/در سوره|ق|50|37|﴿٣٧﴾}}<p></P> | |
− | {{متن قرآن| | + | بی تردید در سرگذشت پیشینیان مایه پند و عبرتی است برای کسی که نیروی تعقّل دارد، یا با تأمل و دقت [به سرگذشت ها] گوش فرا می دهد در حالی که حاضر به شنیدن و فراگیری شنیده های خود باشد. (۳۷)<p></P> |
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− | در | ||
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− | + | {{متن قرآن/در سوره|ق|50|38|﴿٣٨﴾}}<p></P> | |
− | {{متن قرآن| | + | همانا ما آسمان ها و زمین و آنچه را میان آنهاست در شش روز آفریدیم، و هیچ رنج و درماندگی به ما نرسید. (۳۸)<p></P> |
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− | ما | ||
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− | + | {{متن قرآن/در سوره|ق|50|39|﴿٣٩﴾}}<p></P> | |
− | {{متن قرآن| | + | پس [بر آزار مشرکان] شکیبا باش، و پیش از طلوع خورشید و پیش از غروب آن پروردگارت را همراه با سپاس و ستایش تسبیح گوی، (۳۹)<p></P> |
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− | + | {{متن قرآن/در سوره|ق|50|40|﴿٤٠﴾}}<p></P> | |
− | {{متن قرآن| | + | و در پاره ای از شب و نیز پس از سجده ها خدا را تسبیح گوی، (۴۰)<p></P> |
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− | و | ||
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− | + | {{متن قرآن/در سوره|ق|50|41|﴿٤١﴾}}<p></P> | |
− | {{متن قرآن| | + | و گوش فرا ده روزی که ندا دهنده از جایی نزدیک ندا می دهد. (۴۱)<p></P> |
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− | و | ||
==42== | ==42== | ||
− | + | {{متن قرآن/در سوره|ق|50|42|﴿٤٢﴾}}<p></P> | |
− | {{متن قرآن| | + | روزی که [همگان] صیحه و فریاد را به حق و درستی می شنوند [و] آن روز، روز بیرون آمدن [از قبرها] ست. (۴۲)<p></P> |
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− | روزی که | ||
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− | + | {{متن قرآن/در سوره|ق|50|43|﴿٤٣﴾}}<p></P> | |
− | {{متن قرآن| | + | بی تردید ماییم که زنده می کنیم و می میرانیم، و بازگشت به سوی ماست. (۴۳)<p></P> |
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− | + | {{متن قرآن/در سوره|ق|50|44|﴿٤٤﴾}}<p></P> | |
− | {{متن قرآن| | + | روزی که زمین از [روی اجساد] آنان در حالی که [از قبرها بیرون آمده] شتابان [به سوی ندا کننده خود بروند] بشکافد؛ این گردآوردنشان از گورها [وحاضر کردنشان در قیامت] بر ما آسان است. (۴۴)<p></P> |
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− | روزی که زمین | ||
==45== | ==45== | ||
− | + | {{متن قرآن/در سوره|ق|50|45|﴿٤٥﴾}}<p></P> | |
− | {{متن قرآن| | + | ما به آنچه [دشمنان لجوج بر ضد حقایق] می گویند، داناتریم و تو را بر آنان تسلطی نیست [که به قبول حقایق وادارشان کنی]؛ پس به وسیله قرآن کسانی را که از تهدید من می ترسند، بیم ده. (۴۵)<p></P> |
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− | ما به آنچه می | ||
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نسخهٔ ۲۲ اکتبر ۲۰۱۹، ساعت ۱۲:۰۵
درباره سوره ق (50) |
آیات سوره ق |
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1
بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَٰنِ الرَّحِيمِ ق ۚ وَالْقُرْآنِ الْمَجِيدِ ﴿١﴾
به نام خدا که رحمتش بیاندازه است و مهربانیاش همیشگی قاف
سوگند به قرآن مجید [که محمّد، فرستاده ماست و وقوع قیامت حق است.] (۱)
2
بَلْ عَجِبُوا أَنْ جَاءَهُمْ مُنْذِرٌ مِنْهُمْ فَقَالَ الْكَافِرُونَ هَٰذَا شَيْءٌ عَجِيبٌ ﴿٢﴾
[کفر پیشگان نه تنها ایمان نیاوردند] بلکه از اینکه بیم دهنده ای از خودشان به سوی آنان آمد تعجب کردند و در نتیجه کافران گفتند: این چیزی عجیب است. (۲)
3
أَإِذَا مِتْنَا وَكُنَّا تُرَابًا ۖ ذَٰلِكَ رَجْعٌ بَعِيدٌ ﴿٣﴾
آیا هنگامی که مردیم و خاک شدیم [زنده می شویم و به حیات دوباره باز می گردیم؟] این بازگشتی دور [از عقل] است. (۳)
4
قَدْ عَلِمْنَا مَا تَنْقُصُ الْأَرْضُ مِنْهُمْ ۖ وَعِنْدَنَا كِتَابٌ حَفِيظٌ ﴿٤﴾
بی تردید ما آنچه را که زمین از اجسادشان می کاهد، می دانیم و نزد ما کتابی ضبط کننده [همه امور چون لوح محفوظ] است. (۴)
5
بَلْ كَذَّبُوا بِالْحَقِّ لَمَّا جَاءَهُمْ فَهُمْ فِي أَمْرٍ مَرِيجٍ ﴿٥﴾
[اینان نه اینکه زنده شدن پس از مرگ را باور نکردند] بلکه حق را هم هنگامی که به سویشان آمد، تکذیب کردند پس در حالتی آشفته و سردرگم اند. (۵)
6
آیا با تأمل به آسمان بالای سرشان ننگریستند که چگونه آن را بنا کرده و بیاراستیم و آن را هیچ شکاف [و ناموزونی] نیست؟ (۶)
7
و زمین را گستردیم و کوه هایی استوار در آن افکندیم و در آن از هر نوع گیاه خوش منظر و دل انگیزی رویاندیم، (۷)
8
تَبْصِرَةً وَذِكْرَىٰ لِكُلِّ عَبْدٍ مُنِيبٍ ﴿٨﴾
تا برای هر بنده ای که [با اندیشیدن در نظام هستی] به سوی خدا باز می گردد، مایه بینایی و یادآوری باشد؛ (۸)
9
وَنَزَّلْنَا مِنَ السَّمَاءِ مَاءً مُبَارَكًا فَأَنْبَتْنَا بِهِ جَنَّاتٍ وَحَبَّ الْحَصِيدِ ﴿٩﴾
و از آسمان آبی بسیار پربرکت و سودمند نازل کردیم، پس به وسیله آن باغ ها و دانه های دروکردنی را رویاندیم. (۹)
10
وَالنَّخْلَ بَاسِقَاتٍ لَهَا طَلْعٌ نَضِيدٌ ﴿١٠﴾
و [نیز] درختان بلندقامت خرما را که خوشه های متراکم و روی هم چیده دارند [رویاندیم.] (۱۰)
11
رِزْقًا لِلْعِبَادِ ۖ وَأَحْيَيْنَا بِهِ بَلْدَةً مَيْتًا ۚ كَذَٰلِكَ الْخُرُوجُ ﴿١١﴾
برای آنکه رزق و روزی بندگان باشد، و نیز به وسیله آن آب سرزمین مرده را زنده کردیم؛ و بیرون آمدنشان [پس از مرگ از خاک گور برای ورود به قیامت] این گونه است. (۱۱)
12
كَذَّبَتْ قَبْلَهُمْ قَوْمُ نُوحٍ وَأَصْحَابُ الرَّسِّ وَثَمُودُ ﴿١٢﴾
پیش از اینان [که تو را تکذیب می کنند] قوم نوح و اصحاب رس و [قوم] ثمود [پیامبرانشان] را تکذیب کردند. (۱۲)
13
وَعَادٌ وَفِرْعَوْنُ وَإِخْوَانُ لُوطٍ ﴿١٣﴾
و نیز قوم عاد و فرعون و برادران لوط، (۱۳)
14
وَأَصْحَابُ الْأَيْكَةِ وَقَوْمُ تُبَّعٍ ۚ كُلٌّ كَذَّبَ الرُّسُلَ فَحَقَّ وَعِيدِ ﴿١٤﴾
و اصحاب ایکه و قوم تُبّع همگی پیامبران را تکذیب کردند، پس تهدیدم [به نزول عذاب] بر آنان محقق و ثابت شد. (۱۴)
15
أَفَعَيِينَا بِالْخَلْقِ الْأَوَّلِ ۚ بَلْ هُمْ فِي لَبْسٍ مِنْ خَلْقٍ جَدِيدٍ ﴿١٥﴾
آیا ما از آفرینش نخستین عاجز و درمانده شدیم [تا از دوباره آفریدن عاجز و درمانده شویم؟ چنین نیست] بلکه آنان [با این همه دلایل روشن و استوار] باز در آفرینش جدید در تردیدند. (۱۵)
16
همانا انسان را آفریدیم و همواره آنچه را که باطنش [نسبت به معاد و دیگر حقایق] به او وسوسه می کند، می دانیم، و ما به او از رگ گردن نزدیک تریم. (۱۶)
17
إِذْ يَتَلَقَّى الْمُتَلَقِّيَانِ عَنِ الْيَمِينِ وَعَنِ الشِّمَالِ قَعِيدٌ ﴿١٧﴾
[یاد کن] دو فرشته ای را که همواره از ناحیه خیر و از ناحیه شر، ملازم انسان هستند و همه اعمالش را دریافت کرده و ضبط می کنند. (۱۷)
18
مَا يَلْفِظُ مِنْ قَوْلٍ إِلَّا لَدَيْهِ رَقِيبٌ عَتِيدٌ ﴿١٨﴾
هیچ سخنی را به زبان نمی گوید جز اینکه نزد آن [برای نوشتن و حفظش] نگهبانی آماده است؛ (۱۸)
19
وَجَاءَتْ سَكْرَةُ الْمَوْتِ بِالْحَقِّ ۖ ذَٰلِكَ مَا كُنْتَ مِنْهُ تَحِيدُ ﴿١٩﴾
و سکرات و بیهوشی مرگ، حق را [که همه واقعیات جهان پس از مرگ است] می آورد [و به محتضر می گویند:] این همان چیزی است که از آن می گریختی؛ (۱۹)
20
وَنُفِخَ فِي الصُّورِ ۚ ذَٰلِكَ يَوْمُ الْوَعِيدِ ﴿٢٠﴾
و در صور می دمند؛ آن است روز [تحقق و ظهور] وعده های تهدیدآمیز و وحشتناک. (۲۰)
21
وَجَاءَتْ كُلُّ نَفْسٍ مَعَهَا سَائِقٌ وَشَهِيدٌ ﴿٢١﴾
هر کسی در آن روز می آید در حالی که سوق دهنده ای و شاهدی با اوست، [که سوق دهنده او را به محشر می راند و شاهد بر اعمالش گواهی می دهد.] (۲۱)
22
[به او می گویند:] تو از این روز بزرگ در بی خبری و غفلت بودی، پس ما پرده بی خبری را از دیده [بصیرت] ات کنار زدیم در نتیجه دیده ات امروز بسیار تیزبین است. (۲۲)
23
وَقَالَ قَرِينُهُ هَٰذَا مَا لَدَيَّ عَتِيدٌ ﴿٢٣﴾
و [فرشته] همراهش می گوید: این است نامه اعمالش که همراه من آماده است. (۲۳)
24
أَلْقِيَا فِي جَهَنَّمَ كُلَّ كَفَّارٍ عَنِيدٍ ﴿٢٤﴾
[به دو فرشته نگهبان و حافظ اعمال فرمان می دهند] شما دو نفر هر کافر سرسخت و معاندی را در دوزخ اندازید. (۲۴)
25
مَنَّاعٍ لِلْخَيْرِ مُعْتَدٍ مُرِيبٍ ﴿٢٥﴾
[همان که به شدت] مانع خیر و تجاوزکار [از حدود خدا] و تردید کننده در حقایق [و تردید انداز در دل های مردم بود.] (۲۵)
26
الَّذِي جَعَلَ مَعَ اللَّهِ إِلَٰهًا آخَرَ فَأَلْقِيَاهُ فِي الْعَذَابِ الشَّدِيدِ ﴿٢٦﴾
که با خدا معبودی دیگر قرار داد، پس او را در عذاب سخت اندازید، (۲۶)
27
قَالَ قَرِينُهُ رَبَّنَا مَا أَطْغَيْتُهُ وَلَٰكِنْ كَانَ فِي ضَلَالٍ بَعِيدٍ ﴿٢٧﴾
همنشینش [از میان شیطان ها] می گوید: پروردگارا! من او را به سرکشی و طغیان وا نداشتم، او خودش [به میل خود] در گمراهی دور و درازی بود. …. (۲۷)
28
قَالَ لَا تَخْتَصِمُوا لَدَيَّ وَقَدْ قَدَّمْتُ إِلَيْكُمْ بِالْوَعِيدِ ﴿٢٨﴾
[خدا] می گوید: در پیشگاه من با یکدیگر ستیزه مکنید، بی تردید من تهدید [به عذاب] را پیش از این [از طریق وحی و پیامبران] به شما اعلام کرده بودم. (۲۸)
29
مَا يُبَدَّلُ الْقَوْلُ لَدَيَّ وَمَا أَنَا بِظَلَّامٍ لِلْعَبِيدِ ﴿٢٩﴾
نزد من فرمان [تهدیدآمیز به اینکه هر کس با حال کفر و شرک وارد آخرت شود حتماً دوزخی است] تغییر نمی یابد و من نسبت به بندگان ستمکار نیستم. (۲۹)
30
يَوْمَ نَقُولُ لِجَهَنَّمَ هَلِ امْتَلَأْتِ وَتَقُولُ هَلْ مِنْ مَزِيدٍ ﴿٣٠﴾
[یاد کن] روزی را که به دوزخ می گوییم: آیا پر شدی؟ می گوید: آیا زیادتر از این هم هست؟ (۳۰)
31
وَأُزْلِفَتِ الْجَنَّةُ لِلْمُتَّقِينَ غَيْرَ بَعِيدٍ ﴿٣١﴾
و بهشت را به پرهیزکاران نزدیک می کنند بی آنکه فاصله ای از آنان داشته باشد. (۳۱)
32
هَٰذَا مَا تُوعَدُونَ لِكُلِّ أَوَّابٍ حَفِيظٍ ﴿٣٢﴾
[به آنان می گویند:] این همان است که [در دنیا] وعده داده می شدید [این جایگاه رفیع] برای هر کسی است که [در دنیا به سوی خدا] باز می گشته [و] حافظ و نگهبان [عهد، پیمان الهی و حقوق خدا و مردم] بوده است. (۳۲)
33
مَنْ خَشِيَ الرَّحْمَٰنَ بِالْغَيْبِ وَجَاءَ بِقَلْبٍ مُنِيبٍ ﴿٣٣﴾
همان کسی که در نهان از [خدای] رحمان می ترسید و دلی رجوع کننده [به سوی خدا] آورده است؛ (۳۳)
34
ادْخُلُوهَا بِسَلَامٍ ۖ ذَٰلِكَ يَوْمُ الْخُلُودِ ﴿٣٤﴾
به سلامت در آن وارد شوید، امروز روز جاودانگی است (۳۴)
35
لَهُمْ مَا يَشَاءُونَ فِيهَا وَلَدَيْنَا مَزِيدٌ ﴿٣٥﴾
در آنجا هرچه بخواهند برای آنان فراهم است، و نزد ما [نعمت های] بیشتری است. (۳۵)
36
و چه بسیار اقوامی را که پیش از آنان هلاک کردیم که از آنان نیرومندتر بودند، و [با نیرویشان] به سرزمین ها رفتند [و آنها را فتح کردند]، آیا توانستند [از عذاب و هلاکت] گریزگاهی بیابند؟ (۳۶)
37
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَذِكْرَىٰ لِمَنْ كَانَ لَهُ قَلْبٌ أَوْ أَلْقَى السَّمْعَ وَهُوَ شَهِيدٌ ﴿٣٧﴾
بی تردید در سرگذشت پیشینیان مایه پند و عبرتی است برای کسی که نیروی تعقّل دارد، یا با تأمل و دقت [به سرگذشت ها] گوش فرا می دهد در حالی که حاضر به شنیدن و فراگیری شنیده های خود باشد. (۳۷)
38
همانا ما آسمان ها و زمین و آنچه را میان آنهاست در شش روز آفریدیم، و هیچ رنج و درماندگی به ما نرسید. (۳۸)
39
پس [بر آزار مشرکان] شکیبا باش، و پیش از طلوع خورشید و پیش از غروب آن پروردگارت را همراه با سپاس و ستایش تسبیح گوی، (۳۹)
40
وَمِنَ اللَّيْلِ فَسَبِّحْهُ وَأَدْبَارَ السُّجُودِ ﴿٤٠﴾
و در پاره ای از شب و نیز پس از سجده ها خدا را تسبیح گوی، (۴۰)
41
وَاسْتَمِعْ يَوْمَ يُنَادِ الْمُنَادِ مِنْ مَكَانٍ قَرِيبٍ ﴿٤١﴾
و گوش فرا ده روزی که ندا دهنده از جایی نزدیک ندا می دهد. (۴۱)
42
يَوْمَ يَسْمَعُونَ الصَّيْحَةَ بِالْحَقِّ ۚ ذَٰلِكَ يَوْمُ الْخُرُوجِ ﴿٤٢﴾
روزی که [همگان] صیحه و فریاد را به حق و درستی می شنوند [و] آن روز، روز بیرون آمدن [از قبرها] ست. (۴۲)
43
إِنَّا نَحْنُ نُحْيِي وَنُمِيتُ وَإِلَيْنَا الْمَصِيرُ ﴿٤٣﴾
بی تردید ماییم که زنده می کنیم و می میرانیم، و بازگشت به سوی ماست. (۴۳)
44
يَوْمَ تَشَقَّقُ الْأَرْضُ عَنْهُمْ سِرَاعًا ۚ ذَٰلِكَ حَشْرٌ عَلَيْنَا يَسِيرٌ ﴿٤٤﴾
روزی که زمین از [روی اجساد] آنان در حالی که [از قبرها بیرون آمده] شتابان [به سوی ندا کننده خود بروند] بشکافد؛ این گردآوردنشان از گورها [وحاضر کردنشان در قیامت] بر ما آسان است. (۴۴)
45
ما به آنچه [دشمنان لجوج بر ضد حقایق] می گویند، داناتریم و تو را بر آنان تسلطی نیست [که به قبول حقایق وادارشان کنی]؛ پس به وسیله قرآن کسانی را که از تهدید من می ترسند، بیم ده. (۴۵)