قرآن/ جزء 29 (متن و ترجمه): تفاوت بین نسخهها
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|محدوده=این جزء از آیه 1[[سوره ملک]] آغاز و تا آیه 50 [[سوره مرسلات]] ادامه دارد. در این جز سوره [[سوره ملک | ملک ]] ، [[ سوره قلم| قلم]] ،[[سوره الحاقه|الحاقه]] ، [[سوره معارج| معارج]]، [[سوره نوح| نوح]]، [[سوره جن| جن]]، [[سوره مزمل| مزمل]] ، [[سوره مدثر| مدثر]] ،[[سوره قيامة| قيامة]]، [[سوره انسان| انسان]] ، [[سوره مرسلات| مرسلات]] قرار دارد. | |محدوده=این جزء از آیه 1[[سوره ملک]] آغاز و تا آیه 50 [[سوره مرسلات]] ادامه دارد. در این جز سوره [[سوره ملک | ملک ]] ، [[ سوره قلم| قلم]] ،[[سوره الحاقه|الحاقه]] ، [[سوره معارج| معارج]]، [[سوره نوح| نوح]]، [[سوره جن| جن]]، [[سوره مزمل| مزمل]] ، [[سوره مدثر| مدثر]] ،[[سوره قيامة| قيامة]]، [[سوره انسان| انسان]] ، [[سوره مرسلات| مرسلات]] قرار دارد. | ||
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+ | ==قرائت ترتیل جزء (قاری: پرهیزگار)== | ||
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==[[سوره ملک]]== | ==[[سوره ملک]]== | ||
{{متن قرآن/در جزء|67|1|﴿١﴾}}<p></P> | {{متن قرآن/در جزء|67|1|﴿١﴾}}<p></P> | ||
+ | به نام خدا که رحمتش بی اندازه است و مهربانی اش همیشگی. | ||
همیشه سودمند و با برکت است آنکه فرمانروایی [همه هستی] به دست اوست و او بر هر کاری تواناست. (۱)<p></P> | همیشه سودمند و با برکت است آنکه فرمانروایی [همه هستی] به دست اوست و او بر هر کاری تواناست. (۱)<p></P> | ||
{{متن قرآن/در جزء|67|2|﴿٢﴾}}<p></P> | {{متن قرآن/در جزء|67|2|﴿٢﴾}}<p></P> | ||
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{{متن قرآن/در جزء|67|30|﴿٣٠﴾}}<p></P> | {{متن قرآن/در جزء|67|30|﴿٣٠﴾}}<p></P> | ||
بگو: به من خبر دهید اگر آب مورد بهره برداری شما [چون آب رودها، چشمه ها، سدها و چاه ها] در زمین فرو رود [تا آنجا که از دسترس شما خارج گردد] پس کیست که برایتان آب روان و گوارا بیاورد؟! (۳۰)<p></P> | بگو: به من خبر دهید اگر آب مورد بهره برداری شما [چون آب رودها، چشمه ها، سدها و چاه ها] در زمین فرو رود [تا آنجا که از دسترس شما خارج گردد] پس کیست که برایتان آب روان و گوارا بیاورد؟! (۳۰)<p></P> | ||
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==[[سوره قلم]]== | ==[[سوره قلم]]== | ||
{{متن قرآن/در جزء|68|1|﴿١﴾}}<p></P> | {{متن قرآن/در جزء|68|1|﴿١﴾}}<p></P> | ||
+ | به نام خدا که رحمتش بی اندازه است و مهربانی اش همیشگی. | ||
ن، سوگند به قلم و آنچه می نویسند، (۱)<p></P> | ن، سوگند به قلم و آنچه می نویسند، (۱)<p></P> | ||
{{متن قرآن/در جزء|68|2|﴿٢﴾}}<p></P> | {{متن قرآن/در جزء|68|2|﴿٢﴾}}<p></P> | ||
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{{متن قرآن/در جزء|68|52|﴿٥٢﴾}}<p></P> | {{متن قرآن/در جزء|68|52|﴿٥٢﴾}}<p></P> | ||
در حالی که قرآن جز مایه تذکر و پند برای جهانیان نیست. (۵۲)<p></P> | در حالی که قرآن جز مایه تذکر و پند برای جهانیان نیست. (۵۲)<p></P> | ||
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==[[سوره حاقه]]== | ==[[سوره حاقه]]== | ||
{{متن قرآن/در جزء|69|1|﴿١﴾}}<p></P> | {{متن قرآن/در جزء|69|1|﴿١﴾}}<p></P> | ||
+ | به نام خدا که رحمتش بی اندازه است و مهربانی اش همیشگی. | ||
آن روز ثابت و حق [که وقوعش حتمی و تردیدناپذیر است،] (۱)<p></P> | آن روز ثابت و حق [که وقوعش حتمی و تردیدناپذیر است،] (۱)<p></P> | ||
{{متن قرآن/در جزء|69|2|﴿٢﴾}}<p></P> | {{متن قرآن/در جزء|69|2|﴿٢﴾}}<p></P> | ||
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{{متن قرآن/در جزء|69|52|﴿٥٢﴾}}<p></P> | {{متن قرآن/در جزء|69|52|﴿٥٢﴾}}<p></P> | ||
پس به نام پروردگارت تسبیح گوی. (۵۲)<p></P> | پس به نام پروردگارت تسبیح گوی. (۵۲)<p></P> | ||
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==[[سوره معارج]]== | ==[[سوره معارج]]== | ||
{{متن قرآن/در جزء|70|1|﴿١﴾}}<p></P> | {{متن قرآن/در جزء|70|1|﴿١﴾}}<p></P> | ||
+ | به نام خدا که رحمتش بی اندازه است و مهربانی اش همیشگی. | ||
درخواست کننده ای عذابی را که واقع شدنی است درخواست کرد، (۱)<p></P> | درخواست کننده ای عذابی را که واقع شدنی است درخواست کرد، (۱)<p></P> | ||
{{متن قرآن/در جزء|70|2|﴿٢﴾}}<p></P> | {{متن قرآن/در جزء|70|2|﴿٢﴾}}<p></P> | ||
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{{متن قرآن/در جزء|70|44|﴿٤٤﴾}}<p></P> | {{متن قرآن/در جزء|70|44|﴿٤٤﴾}}<p></P> | ||
درحالی که دیدگانشان [از شدت ترس] فرو افتاده، خواری و ذلت آنان را می پوشاند. این همان روزی است که همواره وعده داده می شدند. (۴۴)<p></P> | درحالی که دیدگانشان [از شدت ترس] فرو افتاده، خواری و ذلت آنان را می پوشاند. این همان روزی است که همواره وعده داده می شدند. (۴۴)<p></P> | ||
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نسخهٔ کنونی تا ۱۲ آوریل ۲۰۲۱، ساعت ۰۶:۴۸
قرائت ترتیل جزء (قاری: پرهیزگار)
سوره ملک
بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَٰنِ الرَّحِيمِ تَبَارَكَ الَّذِي بِيَدِهِ الْمُلْكُ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ ﴿١﴾
به نام خدا که رحمتش بی اندازه است و مهربانی اش همیشگی.
همیشه سودمند و با برکت است آنکه فرمانروایی [همه هستی] به دست اوست و او بر هر کاری تواناست. (۱)
الَّذِي خَلَقَ الْمَوْتَ وَالْحَيَاةَ لِيَبْلُوَكُمْ أَيُّكُمْ أَحْسَنُ عَمَلًا ۚ وَهُوَ الْعَزِيزُ الْغَفُورُ ﴿٢﴾
آنکه مرگ و زندگی را آفرید تا شما را بیازماید که کدامتان نیکوکارترید، و او توانای شکست ناپذیر و بسیار آمرزنده است. (۲)
الَّذِي خَلَقَ سَبْعَ سَمَاوَاتٍ طِبَاقًا ۖ مَا تَرَىٰ فِي خَلْقِ الرَّحْمَٰنِ مِنْ تَفَاوُتٍ ۖ فَارْجِعِ الْبَصَرَ هَلْ تَرَىٰ مِنْ فُطُورٍ ﴿٣﴾
آنکه هفت آسمان را بر فراز یکدیگر آفرید. در آفرینش [خدای] رحمان، خلل و نابسامانی و ناهمگونی نمی بینی، پس بار دیگر بنگر آیا هیچ خلل و نابسامانی و ناهمگونی می بینی؟ (۳)
ثُمَّ ارْجِعِ الْبَصَرَ كَرَّتَيْنِ يَنْقَلِبْ إِلَيْكَ الْبَصَرُ خَاسِئًا وَهُوَ حَسِيرٌ ﴿٤﴾
سپس بار دیگر بنگر تا دیده ات در حالی که خسته و کم سو شده [و از یافتن خلل، نابسامانی و ناهمگونی فرو مانده] و درمانده گشته است، به سویت باز گردد. (۴)
وَلَقَدْ زَيَّنَّا السَّمَاءَ الدُّنْيَا بِمَصَابِيحَ وَجَعَلْنَاهَا رُجُومًا لِلشَّيَاطِينِ ۖ وَأَعْتَدْنَا لَهُمْ عَذَابَ السَّعِيرِ ﴿٥﴾
همانا ما آسمان دنیا را با چراغ هایی آراستیم و آنها را تیرهایی برای راندن شیطان ها قرار دادیم، و برای آنان [در آخرت] آتشی افروخته، آماده کرده ایم؛ (۵)
وَلِلَّذِينَ كَفَرُوا بِرَبِّهِمْ عَذَابُ جَهَنَّمَ ۖ وَبِئْسَ الْمَصِيرُ ﴿٦﴾
و برای کسانی که به پروردگارشان کافر شدند، عذاب دوزخ است و بد بازگشت گاهی است. (۶)
إِذَا أُلْقُوا فِيهَا سَمِعُوا لَهَا شَهِيقًا وَهِيَ تَفُورُ ﴿٧﴾
هنگامی که در آن افکنده شوند از آن در حالی که در جوش و فوران است، صدایی هولناک و دلخراش می شنوند. (۷)
تَكَادُ تَمَيَّزُ مِنَ الْغَيْظِ ۖ كُلَّمَا أُلْقِيَ فِيهَا فَوْجٌ سَأَلَهُمْ خَزَنَتُهَا أَلَمْ يَأْتِكُمْ نَذِيرٌ ﴿٨﴾
نزدیک است که از شدت خشم متلاشی و پاره پاره شود. هرگاه گروهی در آن افکنده شوند، نگهبانانش از آنان می پرسند: آیا شما را بیم دهنده ای نیامد؟ (۸)
قَالُوا بَلَىٰ قَدْ جَاءَنَا نَذِيرٌ فَكَذَّبْنَا وَقُلْنَا مَا نَزَّلَ اللَّهُ مِنْ شَيْءٍ إِنْ أَنْتُمْ إِلَّا فِي ضَلَالٍ كَبِيرٍ ﴿٩﴾
می گویند: چرا، بیم دهنده آمد، ولی او را انکار کردیم و گفتیم: خدا هیچ چیز نازل نکرده است؛ شما بیم دهندگان جز در گمراهی بزرگی نیستید؛ (۹)
وَقَالُوا لَوْ كُنَّا نَسْمَعُ أَوْ نَعْقِلُ مَا كُنَّا فِي أَصْحَابِ السَّعِيرِ ﴿١٠﴾
و می گویند: اگر ما [دعوت سعادت بخش آنان را] شنیده بودیم، یا [در حقایقی که برای ما آوردند] تعقّل کرده بودیم، در میان [آتش] اهل آتش سوزان نبودیم. (۱۰)
فَاعْتَرَفُوا بِذَنْبِهِمْ فَسُحْقًا لِأَصْحَابِ السَّعِيرِ ﴿١١﴾
پس به گناه خود اعتراف می کنند. و مرگ و دوری از رحمت بر اهل آتش سوزان باد. (۱۱)
إِنَّ الَّذِينَ يَخْشَوْنَ رَبَّهُمْ بِالْغَيْبِ لَهُمْ مَغْفِرَةٌ وَأَجْرٌ كَبِيرٌ ﴿١٢﴾
بی تردید کسانی که در نهان از پروردگارشان می ترسند، برای آنان آمرزش و پاداشی بزرگ است. (۱۲)
وَأَسِرُّوا قَوْلَكُمْ أَوِ اجْهَرُوا بِهِ ۖ إِنَّهُ عَلِيمٌ بِذَاتِ الصُّدُورِ ﴿١٣﴾
و گفتارتان را پنهان کنید یا آن را آشکار سازید، مسلماً او به نیّات و اسرار سینه ها داناست. (۱۳)
أَلَا يَعْلَمُ مَنْ خَلَقَ وَهُوَ اللَّطِيفُ الْخَبِيرُ ﴿١٤﴾
آیا کسی که [همه موجودات را] آفریده است، نمی داند؟ و حال آنکه او لطیف و آگاه است. (۱۴)
هُوَ الَّذِي جَعَلَ لَكُمُ الْأَرْضَ ذَلُولًا فَامْشُوا فِي مَنَاكِبِهَا وَكُلُوا مِنْ رِزْقِهِ ۖ وَإِلَيْهِ النُّشُورُ ﴿١٥﴾
اوست که زمین را برای شما رام قرار داد، بنابراین بر اطراف و جوانب آن راه روید و از روزی خدا بخورید، و برانگیختن مردگان و رستاخیز به سوی اوست. (۱۵)
أَأَمِنْتُمْ مَنْ فِي السَّمَاءِ أَنْ يَخْسِفَ بِكُمُ الْأَرْضَ فَإِذَا هِيَ تَمُورُ ﴿١٦﴾
آیا از کسی که [حاکمیت و فرمانروایی اش] در آسمان قطعی است [چه رسد در زمین] خود را در امان دیده اید، از اینکه [با شکافتن زمین] شما را در آن فرو برد در حالی که زلزله و جنبش موج آسایش را ادامه دهد؟ (۱۶)
أَمْ أَمِنْتُمْ مَنْ فِي السَّمَاءِ أَنْ يُرْسِلَ عَلَيْكُمْ حَاصِبًا ۖ فَسَتَعْلَمُونَ كَيْفَ نَذِيرِ ﴿١٧﴾
آیا از کسی که حاکمیت و فرمانروایی اش در آسمان قطعی است [چه رسد در زمین] خود را در امان دیده اید از اینکه توفانی سخت [که با خود ریگ و سنگ می آورد] بر شما فرستد؟ پس به زودی خواهید دانست که بیم دادن من چگونه است! (۱۷)
وَلَقَدْ كَذَّبَ الَّذِينَ مِنْ قَبْلِهِمْ فَكَيْفَ كَانَ نَكِيرِ ﴿١٨﴾
و مسلماً کسانی که پیش از آنان بودند [آیات خدا و پیامبران را انکار کردند]، پس [بنگر] عذاب من چگونه بود! (۱۸)
أَوَلَمْ يَرَوْا إِلَى الطَّيْرِ فَوْقَهُمْ صَافَّاتٍ وَيَقْبِضْنَ ۚ مَا يُمْسِكُهُنَّ إِلَّا الرَّحْمَٰنُ ۚ إِنَّهُ بِكُلِّ شَيْءٍ بَصِيرٌ ﴿١٩﴾
آیا ندانسته اند که پرندگان بالای سرشان را در حالی که بال می گشایند و می بندند، فقط [خدای] رحمان در فضا نگه می دارد؟ یقیناً او بر همه چیز بیناست. (۱۹)
أَمَّنْ هَٰذَا الَّذِي هُوَ جُنْدٌ لَكُمْ يَنْصُرُكُمْ مِنْ دُونِ الرَّحْمَٰنِ ۚ إِنِ الْكَافِرُونَ إِلَّا فِي غُرُورٍ ﴿٢٠﴾
آیا آن کیست [از] سپاهتان که شما را به هنگام نزول عذاب در برابر خدای رحمان یاری دهد؟ کافران جز دچار فریب [شیطان] نیستند. (۲۰)
أَمَّنْ هَٰذَا الَّذِي يَرْزُقُكُمْ إِنْ أَمْسَكَ رِزْقَهُ ۚ بَلْ لَجُّوا فِي عُتُوٍّ وَنُفُورٍ ﴿٢١﴾
یا کیست آنکه به شما روزی دهد، اگر خدا روزی اش را از شما باز دارد؟ [نه اینکه حقیقت را نمی دانند] بلکه در سرکشی و نفرتِ [از حق سرسختی و] پافشاری می کنند. (۲۱)
أَفَمَنْ يَمْشِي مُكِبًّا عَلَىٰ وَجْهِهِ أَهْدَىٰ أَمَّنْ يَمْشِي سَوِيًّا عَلَىٰ صِرَاطٍ مُسْتَقِيمٍ ﴿٢٢﴾
آیا کسی که نگونسار و به صورت افتاده حرکت می کند، هدایت یافته تر است یا آنکه راست قامت بر راه راست می رود؟ (۲۲)
قُلْ هُوَ الَّذِي أَنْشَأَكُمْ وَجَعَلَ لَكُمُ السَّمْعَ وَالْأَبْصَارَ وَالْأَفْئِدَةَ ۖ قَلِيلًا مَا تَشْكُرُونَ ﴿٢٣﴾
بگو: اوست که شما را آفرید و برای شما گوش و دیده و دل قرار داد، ولی اندکی سپاس می گزارید. (۲۳)
قُلْ هُوَ الَّذِي ذَرَأَكُمْ فِي الْأَرْضِ وَإِلَيْهِ تُحْشَرُونَ ﴿٢٤﴾
بگو: اوست که شما را در زمین آفرید و به سوی او محشور می شوید. (۲۴)
وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا الْوَعْدُ إِنْ كُنْتُمْ صَادِقِينَ ﴿٢٥﴾
و می گویند: اگر راستگویید این وعده وقوع [رستاخیز] کی خواهد بود؟ (۲۵)
قُلْ إِنَّمَا الْعِلْمُ عِنْدَ اللَّهِ وَإِنَّمَا أَنَا نَذِيرٌ مُبِينٌ ﴿٢٦﴾
بگو: دانش و آگاهی [این حقیقت] فقط نزد خداست و من تنها بیم دهنده ای آشکارم. (۲۶)
فَلَمَّا رَأَوْهُ زُلْفَةً سِيئَتْ وُجُوهُ الَّذِينَ كَفَرُوا وَقِيلَ هَٰذَا الَّذِي كُنْتُمْ بِهِ تَدَّعُونَ ﴿٢٧﴾
پس زمانی که آن [وعده داده شده] را از نزدیک ببینند، چهره کافران درهم و زشت گردد [و به آنان گویند:] این است همان چیزی که آن را [از روی مسخره] می خواستید. (۲۷)
قُلْ أَرَأَيْتُمْ إِنْ أَهْلَكَنِيَ اللَّهُ وَمَنْ مَعِيَ أَوْ رَحِمَنَا فَمَنْ يُجِيرُ الْكَافِرِينَ مِنْ عَذَابٍ أَلِيمٍ ﴿٢٨﴾
بگو: به من خبر دهید اگر خدا من را و هر که را با من است هلاک کند، یا مورد رحمت قرار دهد، پس چه کسی کافران را از عذاب دردناک پناه خواهد داد؟ (۲۸)
قُلْ هُوَ الرَّحْمَٰنُ آمَنَّا بِهِ وَعَلَيْهِ تَوَكَّلْنَا ۖ فَسَتَعْلَمُونَ مَنْ هُوَ فِي ضَلَالٍ مُبِينٍ ﴿٢٩﴾
بگو: اوست رحمان، به او ایمان آوردیم، و بر او توکل کردیم، پس به زودی خواهید دانست چه کسی در گمراهی آشکار است. (۲۹)
قُلْ أَرَأَيْتُمْ إِنْ أَصْبَحَ مَاؤُكُمْ غَوْرًا فَمَنْ يَأْتِيكُمْ بِمَاءٍ مَعِينٍ ﴿٣٠﴾
بگو: به من خبر دهید اگر آب مورد بهره برداری شما [چون آب رودها، چشمه ها، سدها و چاه ها] در زمین فرو رود [تا آنجا که از دسترس شما خارج گردد] پس کیست که برایتان آب روان و گوارا بیاورد؟! (۳۰)
سوره قلم
بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَٰنِ الرَّحِيمِ ن ۚ وَالْقَلَمِ وَمَا يَسْطُرُونَ ﴿١﴾
به نام خدا که رحمتش بی اندازه است و مهربانی اش همیشگی.
ن، سوگند به قلم و آنچه می نویسند، (۱)
مَا أَنْتَ بِنِعْمَةِ رَبِّكَ بِمَجْنُونٍ ﴿٢﴾
که به سبب نعمت و رحمت پروردگارت [که نبوّت، دانش و بصیرت است] تو مجنون نیستی؛ (۲)
وَإِنَّ لَكَ لَأَجْرًا غَيْرَ مَمْنُونٍ ﴿٣﴾
و بی تردید برای تو پاداشی دایم و همیشگی است؛ (۳)
وَإِنَّكَ لَعَلَىٰ خُلُقٍ عَظِيمٍ ﴿٤﴾
و یقیناً تو بر بلندای سجایای اخلاقی عظیمی قرار داری. (۴)
فَسَتُبْصِرُ وَيُبْصِرُونَ ﴿٥﴾
پس به زودی می بینی و [منکران هم] می بینند، (۵)
بِأَيْيِكُمُ الْمَفْتُونُ ﴿٦﴾
که کدام یک از شما دچار جنون اند؛ (۶)
إِنَّ رَبَّكَ هُوَ أَعْلَمُ بِمَنْ ضَلَّ عَنْ سَبِيلِهِ وَهُوَ أَعْلَمُ بِالْمُهْتَدِينَ ﴿٧﴾
بی تردید پروردگارت بهتر می داند چه کسی از راه او گمراه شده، و او به راه یافتگان داناتر است. …. (۷)
فَلَا تُطِعِ الْمُكَذِّبِينَ ﴿٨﴾
از تکذیب کنندگان [قرآن و نبوّت] فرمان مبر. (۸)
وَدُّوا لَوْ تُدْهِنُ فَيُدْهِنُونَ ﴿٩﴾
دوست دارند نرمی کنی تا نرمی کنند، (۹)
وَلَا تُطِعْ كُلَّ حَلَّافٍ مَهِينٍ ﴿١٠﴾
و از هر سوگند خورده زبون و فرومایه فرمان مبر، (۱۰)
هَمَّازٍ مَشَّاءٍ بِنَمِيمٍ ﴿١١﴾
آنکه بسیار عیب جوست، و برای سخن چینی در رفت و آمد است، (۱۱)
مَنَّاعٍ لِلْخَيْرِ مُعْتَدٍ أَثِيمٍ ﴿١٢﴾
به شدت بازدارنده [مردم] از کار خیر و متجاوز و گنهکار است. (۱۲)
عُتُلٍّ بَعْدَ ذَٰلِكَ زَنِيمٍ ﴿١٣﴾
گذشته از این ها کینه توز و بی اصل و نسب است، (۱۳)
أَنْ كَانَ ذَا مَالٍ وَبَنِينَ ﴿١٤﴾
[سرکشی و یاغی گری اش] برای آن [است] که دارای ثروت و فرزندان فراوان است. (۱۴)
إِذَا تُتْلَىٰ عَلَيْهِ آيَاتُنَا قَالَ أَسَاطِيرُ الْأَوَّلِينَ ﴿١٥﴾
هنگامی که آیات ما را بر او می خوانند، گوید: افسانه های پیشینیان است! (۱۵)
سَنَسِمُهُ عَلَى الْخُرْطُومِ ﴿١٦﴾
به زودی بر بینیِ [پر باد و خرطوم مانند] ش داغ رسوایی و خواری می نهیم. (۱۶)
إِنَّا بَلَوْنَاهُمْ كَمَا بَلَوْنَا أَصْحَابَ الْجَنَّةِ إِذْ أَقْسَمُوا لَيَصْرِمُنَّهَا مُصْبِحِينَ ﴿١٧﴾
بی تردید ما آنان را [که در مکه بودند] آزمودیم همان گونه که صاحبان آن باغ را [در منطقه یمن] آزمودیم، هنگامی که سوگند خوردند که صبحگاهان حتماً میوه های باغ را بچینند، (۱۷)
وَلَا يَسْتَثْنُونَ ﴿١٨﴾
و چیزی از آن را [برای تهیدستان و نیازمندان] استثنا نکردند. (۱۸)
فَطَافَ عَلَيْهَا طَائِفٌ مِنْ رَبِّكَ وَهُمْ نَائِمُونَ ﴿١٩﴾
پس در حالی که صاحبان باغ در خواب بودند، بلایی فراگیر از سوی پروردگارت آن باغ را فرا گرفت. (۱۹)
فَأَصْبَحَتْ كَالصَّرِيمِ ﴿٢٠﴾
پس [آن باغ] به صورت شبی تاریک درآمد [و جز خاکستر چیزی در آن دیده نمی شد!] (۲۰)
فَتَنَادَوْا مُصْبِحِينَ ﴿٢١﴾
وهنگام صبح یکدیگر را آوازدادند، (۲۱)
أَنِ اغْدُوا عَلَىٰ حَرْثِكُمْ إِنْ كُنْتُمْ صَارِمِينَ ﴿٢٢﴾
که اگر قصد چیدن میوه دارید بامدادان به سوی کشتزار و باغتان حرکت کنید؛ (۲۲)
فَانْطَلَقُوا وَهُمْ يَتَخَافَتُونَ ﴿٢٣﴾
پس به راه افتادند در حالی که آهسته به هم می گفتند: (۲۳)
أَنْ لَا يَدْخُلَنَّهَا الْيَوْمَ عَلَيْكُمْ مِسْكِينٌ ﴿٢٤﴾
امروز نباید نیازمندی در این باغ بر شما وارد شود (۲۴)
وَغَدَوْا عَلَىٰ حَرْدٍ قَادِرِينَ ﴿٢٥﴾
و بامدادان به قصد اینکه تهیدستان را محروم گذارند به سوی باغ روان شدند. (۲۵)
فَلَمَّا رَأَوْهَا قَالُوا إِنَّا لَضَالُّونَ ﴿٢٦﴾
پس چون [به باغ رسیدند و آن را نابود] دیدند، گفتند: یقیناً ما گمراه بوده ایم [که چنان تصمیم خلاف حقّی درباره مستمندان و تهیدستان گرفتیم.] (۲۶)
بَلْ نَحْنُ مَحْرُومُونَ ﴿٢٧﴾
بلکه ما [از لطف خدا هم] محرومیم. (۲۷)
قَالَ أَوْسَطُهُمْ أَلَمْ أَقُلْ لَكُمْ لَوْلَا تُسَبِّحُونَ ﴿٢٨﴾
عاقل ترینشان گفت: آیا به شما نگفتم که چرا خدا را [به پاک بودن از هر عیب و نقصی] یاد نمی کنید [و چرا او را از انتقام گرفتن درمانده می دانید؟!] (۲۸)
قَالُوا سُبْحَانَ رَبِّنَا إِنَّا كُنَّا ظَالِمِينَ ﴿٢٩﴾
گفتند: پروردگارا! تو را به پاکی می ستاییم، مسلماً ما ستمکار بوده ایم. (۲۹)
فَأَقْبَلَ بَعْضُهُمْ عَلَىٰ بَعْضٍ يَتَلَاوَمُونَ ﴿٣٠﴾
پس به یکدیگر رو کرده به سرزنش و ملامت هم پرداختند. (۳۰)
قَالُوا يَا وَيْلَنَا إِنَّا كُنَّا طَاغِينَ ﴿٣١﴾
گفتند: وای بر ما که طغیان گر بوده ایم. (۳۱)
عَسَىٰ رَبُّنَا أَنْ يُبْدِلَنَا خَيْرًا مِنْهَا إِنَّا إِلَىٰ رَبِّنَا رَاغِبُونَ ﴿٣٢﴾
امید است پروردگارمان بهتر از آن را به ما عوض دهد چون ما [از هر چیزی دل بریدیم و] به پروردگارمان راغب و علاقه مندیم. (۳۲)
كَذَٰلِكَ الْعَذَابُ ۖ وَلَعَذَابُ الْآخِرَةِ أَكْبَرُ ۚ لَوْ كَانُوا يَعْلَمُونَ ﴿٣٣﴾
چنین است عذاب [دنیا] و عذاب آخرت اگر معرفت و آگاهی داشتند، بزرگ تر است. (۳۳)
إِنَّ لِلْمُتَّقِينَ عِنْدَ رَبِّهِمْ جَنَّاتِ النَّعِيمِ ﴿٣٤﴾
بی تردید برای پرهیزکاران نزد پروردگارشان بهشت های پرنعمت است. (۳۴)
أَفَنَجْعَلُ الْمُسْلِمِينَ كَالْمُجْرِمِينَ ﴿٣٥﴾
آیا ما تسلیم شدگان [به فرمان ها و احکام خود] را چون مجرمان قرار می دهیم؟ (۳۵)
مَا لَكُمْ كَيْفَ تَحْكُمُونَ ﴿٣٦﴾
شما را چه شده؟ چگونه داوری می کنید؟! (۳۶)
أَمْ لَكُمْ كِتَابٌ فِيهِ تَدْرُسُونَ ﴿٣٧﴾
آیا شما را کتابی [آسمانی از نزد خدا] ست که در آن می خوانید (۳۷)
إِنَّ لَكُمْ فِيهِ لَمَا تَخَيَّرُونَ ﴿٣٨﴾
که در آن جهان هر چه را شما بخواهید و انتخاب کنید برای شما خواهد بود؟! (۳۸)
أَمْ لَكُمْ أَيْمَانٌ عَلَيْنَا بَالِغَةٌ إِلَىٰ يَوْمِ الْقِيَامَةِ ۙ إِنَّ لَكُمْ لَمَا تَحْكُمُونَ ﴿٣٩﴾
یا شما را بر ما تا روز قیامت پیمان و سوگند استواری است که هر چه را به سود خود حکم کنید ویژه شماست؟! (۳۹)
سَلْهُمْ أَيُّهُمْ بِذَٰلِكَ زَعِيمٌ ﴿٤٠﴾
از آنان بپرس کدامشان ضامن آن ادعاست [که مسلمان و مجرم یکسانند؟!!] (۴۰)
أَمْ لَهُمْ شُرَكَاءُ فَلْيَأْتُوا بِشُرَكَائِهِمْ إِنْ كَانُوا صَادِقِينَ ﴿٤١﴾
یا شریکانی [در ربوبیت خدا] دارند [که از آنان نزد خدا شفاعت کنند که در اجر و ثواب با مسلمانان یکسان شوند؟] پس اگر راستگویند، شریکانشان را [به میدان] آورند. (۴۱)
يَوْمَ يُكْشَفُ عَنْ سَاقٍ وَيُدْعَوْنَ إِلَى السُّجُودِ فَلَا يَسْتَطِيعُونَ ﴿٤٢﴾
[یاد کن] روزی را که کار بر آنان به شدت سخت و دشوار شود، [و آن روز که جای هیچ تکلیف و عبادتی نیست به عنوان سرزنش و ملامت] به سجده کردن دعوت شوند، ولی در خود قدرت و استطاعت [سجده کردن] نیابند! (۴۲)
خَاشِعَةً أَبْصَارُهُمْ تَرْهَقُهُمْ ذِلَّةٌ ۖ وَقَدْ كَانُوا يُدْعَوْنَ إِلَى السُّجُودِ وَهُمْ سَالِمُونَ ﴿٤٣﴾
دیدگانشان از شرم و حیا، فرو افتاده، خواری و ذلت آنان را فرا گیرد و اینان [در دنیا] به سجده [بر خدا] دعوت می شدند در حالی که تندرست بودند [ولی از فرمان خدا متکبرانه روی می گرداندند.] (۴۳)
فَذَرْنِي وَمَنْ يُكَذِّبُ بِهَٰذَا الْحَدِيثِ ۖ سَنَسْتَدْرِجُهُمْ مِنْ حَيْثُ لَا يَعْلَمُونَ ﴿٤٤﴾
پس مرا با کسانی که این قرآن را انکار می کنند واگذار، به زودی ما آنان را به تدریج از آن جا که نمی دانند [به سوی عذاب] می کشانیم؛ (۴۴)
وَأُمْلِي لَهُمْ ۚ إِنَّ كَيْدِي مَتِينٌ ﴿٤٥﴾
و [البته] آنان را مهلت می دهیم [تا گناهشان را در حال بی خبری به نهایت برسانند]، بی تردید نقشه و تدبیر من استوار است. (۴۵)
أَمْ تَسْأَلُهُمْ أَجْرًا فَهُمْ مِنْ مَغْرَمٍ مُثْقَلُونَ ﴿٤٦﴾
[اینکه دعوتت را نمی پذیرند] مگر از آنان در برابر ابلاغ رسالت پاداشی می طلبی که از خسارت و زیانش سنگین بارند؟ (۴۶)
أَمْ عِنْدَهُمُ الْغَيْبُ فَهُمْ يَكْتُبُونَ ﴿٤٧﴾
یا غیب نزد آنان است و آنان از روی آن] می نویسند [و خود با تکیه بر آن به ادعاهای خود یقین می کنند و به دیگران هم خبر می دهند؟ (۴۷)
فَاصْبِرْ لِحُكْمِ رَبِّكَ وَلَا تَكُنْ كَصَاحِبِ الْحُوتِ إِذْ نَادَىٰ وَهُوَ مَكْظُومٌ ﴿٤٨﴾
پس در برابر حکم و قضای پروردگارت [که هلاک کردن تدریجی این طاغیان است] شکیبا باش و مانند صاحب ماهی [یونس] مباش [که شتاب در آمدن عذاب را برای قومش خواست و به این علت در شکم ماهی محبوس شد] و در آن حال با دلی مالامال از اندوه، خدا را ندا داد. (۴۸)
لَوْلَا أَنْ تَدَارَكَهُ نِعْمَةٌ مِنْ رَبِّهِ لَنُبِذَ بِالْعَرَاءِ وَهُوَ مَذْمُومٌ ﴿٤٩﴾
اگر رحمت و لطفی از سوی پروردگارش او را در نیافته بود، یقیناً نکوهش شده به صحرایی بی آب و گیاه افکنده می شد. (۴۹)
فَاجْتَبَاهُ رَبُّهُ فَجَعَلَهُ مِنَ الصَّالِحِينَ ﴿٥٠﴾
پس پروردگارش او را برگزید و از شایستگان قرار داد (۵۰)
وَإِنْ يَكَادُ الَّذِينَ كَفَرُوا لَيُزْلِقُونَكَ بِأَبْصَارِهِمْ لَمَّا سَمِعُوا الذِّكْرَ وَيَقُولُونَ إِنَّهُ لَمَجْنُونٌ ﴿٥١﴾
و کافران چون قرآن را شنیدند، نزدیک بود تو را با چشمانشان بلغزانند [و از پای درآورند] و می گویند: بی تردید او دیوانه است! (۵۱)
وَمَا هُوَ إِلَّا ذِكْرٌ لِلْعَالَمِينَ ﴿٥٢﴾
در حالی که قرآن جز مایه تذکر و پند برای جهانیان نیست. (۵۲)
سوره حاقه
بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَٰنِ الرَّحِيمِ الْحَاقَّةُ ﴿١﴾
به نام خدا که رحمتش بی اندازه است و مهربانی اش همیشگی.
آن روز ثابت و حق [که وقوعش حتمی و تردیدناپذیر است،] (۱)
مَا الْحَاقَّةُ ﴿٢﴾
آن روز ثابت و حق چیست؟ (۲)
وَمَا أَدْرَاكَ مَا الْحَاقَّةُ ﴿٣﴾
و تو چه می دانی که آن روز ثابت و حق چیست؟ (۳)
كَذَّبَتْ ثَمُودُ وَعَادٌ بِالْقَارِعَةِ ﴿٤﴾
[قوم] ثمود و عاد آن روز کوبنده را انکار کردند؛ (۴)
فَأَمَّا ثَمُودُ فَأُهْلِكُوا بِالطَّاغِيَةِ ﴿٥﴾
اما قوم ثمود با عذابی سرکش هلاک شدند، (۵)
وَأَمَّا عَادٌ فَأُهْلِكُوا بِرِيحٍ صَرْصَرٍ عَاتِيَةٍ ﴿٦﴾
و اما قوم عاد با تندبادی بسیار سرد و طغیان گر نابود شدند، (۶)
سَخَّرَهَا عَلَيْهِمْ سَبْعَ لَيَالٍ وَثَمَانِيَةَ أَيَّامٍ حُسُومًا فَتَرَى الْقَوْمَ فِيهَا صَرْعَىٰ كَأَنَّهُمْ أَعْجَازُ نَخْلٍ خَاوِيَةٍ ﴿٧﴾
که خدا آن را هفت شب و هشت روز پی در پی بر آنان مسلط کرد و [اگر آنجا بودی] می دیدی که آنان مانند تنه های پوسیده و پوک درختان خرما روی زمین افتاده [و هلاک شده اند.] (۷)
فَهَلْ تَرَىٰ لَهُمْ مِنْ بَاقِيَةٍ ﴿٨﴾
آیا از آنان هیچ باقی مانده ای می بینی؟ (۸)
وَجَاءَ فِرْعَوْنُ وَمَنْ قَبْلَهُ وَالْمُؤْتَفِكَاتُ بِالْخَاطِئَةِ ﴿٩﴾
و فرعون و کسانی که پیش از او بودند و مردم شهرهای زیر و رو شده [قوم لوط] مرتکب گناهان بزرگ شدند، (۹)
فَعَصَوْا رَسُولَ رَبِّهِمْ فَأَخَذَهُمْ أَخْذَةً رَابِيَةً ﴿١٠﴾
و فرستاده پروردگارشان را نافرمانی کردند و خدا هم آنان را به عذابی سخت گرفت. (۱۰)
إِنَّا لَمَّا طَغَى الْمَاءُ حَمَلْنَاكُمْ فِي الْجَارِيَةِ ﴿١١﴾
هنگامی که آب طغیان کرد، ما شما را در کشتی سوار کردیم، (۱۱)
لِنَجْعَلَهَا لَكُمْ تَذْكِرَةً وَتَعِيَهَا أُذُنٌ وَاعِيَةٌ ﴿١٢﴾
تا آن را برای شما مایه تذکر و بیداری قرار دهیم و گوش شنوا آن را [به عنوان مایه عبرت و تذکر] حفظ کند. (۱۲)
فَإِذَا نُفِخَ فِي الصُّورِ نَفْخَةٌ وَاحِدَةٌ ﴿١٣﴾
پس چون در صور یک بار دمیده شود، (۱۳)
وَحُمِلَتِ الْأَرْضُ وَالْجِبَالُ فَدُكَّتَا دَكَّةً وَاحِدَةً ﴿١٤﴾
و زمین و کوه ها از جای خود برداشته شوند و هر دوی آنها یک باره درهم کوبیده و ریز ریز گردند! (۱۴)
فَيَوْمَئِذٍ وَقَعَتِ الْوَاقِعَةُ ﴿١٥﴾
پس آن روز است که آن واقعه بزرگ واقع می شود؛ (۱۵)
وَانْشَقَّتِ السَّمَاءُ فَهِيَ يَوْمَئِذٍ وَاهِيَةٌ ﴿١٦﴾
و آسمان بشکافد و در آن روز است که از هم گسسته و متلاشی گردد؛ (۱۶)
وَالْمَلَكُ عَلَىٰ أَرْجَائِهَا ۚ وَيَحْمِلُ عَرْشَ رَبِّكَ فَوْقَهُمْ يَوْمَئِذٍ ثَمَانِيَةٌ ﴿١٧﴾
و فرشتگان [برای اجرای دستورها حق] بر کناره ها و اطراف آسمان قرار می گیرند، ودر آن روز هشت فرشته، عرش پروردگارت را بر فراز همه آنها حمل می کنند. (۱۷)
يَوْمَئِذٍ تُعْرَضُونَ لَا تَخْفَىٰ مِنْكُمْ خَافِيَةٌ ﴿١٨﴾
آن روز [همه شما برای حسابرسی به پیشگاه خدا] عرضه می شوید در حالی که هیچ [عمل و نیّت] پوشیده ای از شما پنهان نمی ماند. (۱۸)
فَأَمَّا مَنْ أُوتِيَ كِتَابَهُ بِيَمِينِهِ فَيَقُولُ هَاؤُمُ اقْرَءُوا كِتَابِيَهْ ﴿١٩﴾
اما کسی که پرونده اش را به دست راستش دهند، می گوید: [ای مردم!] پرونده مرا بگیرید و بخوانید. (۱۹)
إِنِّي ظَنَنْتُ أَنِّي مُلَاقٍ حِسَابِيَهْ ﴿٢٠﴾
من یقین داشتم که حساب اعمالم را می بینم [به این سبب همه اعمالم را هماهنگ با احکام خدا انجام دادم و کردار بدم را اصلاح کردم.] (۲۰)
فَهُوَ فِي عِيشَةٍ رَاضِيَةٍ ﴿٢١﴾
پس او در یک زندگی خوش و پسندیده ای است. (۲۱)
فِي جَنَّةٍ عَالِيَةٍ ﴿٢٢﴾
در بهشتی برین (۲۲)
قُطُوفُهَا دَانِيَةٌ ﴿٢٣﴾
که میوه هایش در دسترس است. (۲۳)
كُلُوا وَاشْرَبُوا هَنِيئًا بِمَا أَسْلَفْتُمْ فِي الْأَيَّامِ الْخَالِيَةِ ﴿٢٤﴾
[به آنان گویند:] بخورید و بیاشامید، گوارایتان باد به سبب اعمالی که در ایام گذشته انجام دادید؛ (۲۴)
وَأَمَّا مَنْ أُوتِيَ كِتَابَهُ بِشِمَالِهِ فَيَقُولُ يَا لَيْتَنِي لَمْ أُوتَ كِتَابِيَهْ ﴿٢٥﴾
و اما کسی که پرونده اعمالش را به دست چپش دهند، می گوید: ای کاش پرونده ام را دریافت نمی کردم، (۲۵)
وَلَمْ أَدْرِ مَا حِسَابِيَهْ ﴿٢٦﴾
و نمی دانستم حساب من چیست؟ (۲۶)
يَا لَيْتَهَا كَانَتِ الْقَاضِيَةَ ﴿٢٧﴾
ای کاش همان مرگ اول [که مرا از دنیا به آخرت انتقال داد] کارم را یکسره می کرد [و در نیستی ابد قرارم می داد،] (۲۷)
مَا أَغْنَىٰ عَنِّي مَالِيَهْ ۜ ﴿٢٨﴾
ثروتم عذاب را از من دفع نکرد، (۲۸)
هَلَكَ عَنِّي سُلْطَانِيَهْ ﴿٢٩﴾
قدرت و توانم از دست رفت. (۲۹)
خُذُوهُ فَغُلُّوهُ ﴿٣٠﴾
[فرمان آید] او را بگیرید و در غل و زنجیرش کشید، (۳۰)
ثُمَّ الْجَحِيمَ صَلُّوهُ ﴿٣١﴾
آن گاه به دوزخش دراندازید، (۳۱)
ثُمَّ فِي سِلْسِلَةٍ ذَرْعُهَا سَبْعُونَ ذِرَاعًا فَاسْلُكُوهُ ﴿٣٢﴾
سپس او را در زنجیری که طولش هفتاد ذرع است به بند کشید، (۳۲)
إِنَّهُ كَانَ لَا يُؤْمِنُ بِاللَّهِ الْعَظِيمِ ﴿٣٣﴾
زیرا او به خدای بزرگ ایمان نمی آورده (۳۳)
وَلَا يَحُضُّ عَلَىٰ طَعَامِ الْمِسْكِينِ ﴿٣٤﴾
و مردم را به اطعام نیازمندان تشویق نمی کرده. (۳۴)
فَلَيْسَ لَهُ الْيَوْمَ هَاهُنَا حَمِيمٌ ﴿٣٥﴾
پس امروز او را در اینجا دوست مهربان و حمایت گری نیست؛ (۳۵)
وَلَا طَعَامٌ إِلَّا مِنْ غِسْلِينٍ ﴿٣٦﴾
و نه غذایی مگر چرکاب و کثافات [ی از بدن اهل دوزخ!] (۳۶)
لَا يَأْكُلُهُ إِلَّا الْخَاطِئُونَ ﴿٣٧﴾
که آن را جز خطاکاران نمی خورند. (۳۷)
فَلَا أُقْسِمُ بِمَا تُبْصِرُونَ ﴿٣٨﴾
پس سوگند یاد می کنم به آنچه [از محسوسات] می بینید، (۳۸)
وَمَا لَا تُبْصِرُونَ ﴿٣٩﴾
و آنچه [از غیر محسوسات] نمی بینید، (۳۹)
إِنَّهُ لَقَوْلُ رَسُولٍ كَرِيمٍ ﴿٤٠﴾
بی تردید این قرآن، گفتار فرستاده ای بزرگوار است، (۴۰)
وَمَا هُوَ بِقَوْلِ شَاعِرٍ ۚ قَلِيلًا مَا تُؤْمِنُونَ ﴿٤١﴾
و آن گفتار یک شاعر نیست، ولی جز اندکی ایمان نمی آورید، (۴۱)
وَلَا بِقَوْلِ كَاهِنٍ ۚ قَلِيلًا مَا تَذَكَّرُونَ ﴿٤٢﴾
و گفتار کاهن هم نیست، ولی جز اندکی متذکّر نمی شوید. (۴۲)
تَنْزِيلٌ مِنْ رَبِّ الْعَالَمِينَ ﴿٤٣﴾
نازل شده از سوی پروردگار جهانیان است. (۴۳)
وَلَوْ تَقَوَّلَ عَلَيْنَا بَعْضَ الْأَقَاوِيلِ ﴿٤٤﴾
و اگر [او] پاره ای از گفته ها را به دروغ بر ما می بست، (۴۴)
لَأَخَذْنَا مِنْهُ بِالْيَمِينِ ﴿٤٥﴾
ما او را به شدت می گرفتیم، (۴۵)
ثُمَّ لَقَطَعْنَا مِنْهُ الْوَتِينَ ﴿٤٦﴾
سپس رگ قلبش را پاره می کردیم؛ (۴۶)
فَمَا مِنْكُمْ مِنْ أَحَدٍ عَنْهُ حَاجِزِينَ ﴿٤٧﴾
در آن صورت هیچ کدام از شما مانع از عذاب او نبود، (۴۷)
وَإِنَّهُ لَتَذْكِرَةٌ لِلْمُتَّقِينَ ﴿٤٨﴾
بی تردید این قرآن، وسیله پند و تذکری برای پرهیزکاران است. (۴۸)
وَإِنَّا لَنَعْلَمُ أَنَّ مِنْكُمْ مُكَذِّبِينَ ﴿٤٩﴾
و ما به یقین می دانیم که از میان شما انکارکنندگانی هست. (۴۹)
وَإِنَّهُ لَحَسْرَةٌ عَلَى الْكَافِرِينَ ﴿٥٠﴾
و این انکار قطعاً مایه حسرت کافران است، (۵۰)
وَإِنَّهُ لَحَقُّ الْيَقِينِ ﴿٥١﴾
و بی تردید این قرآن، حقّی یقینی است. (۵۱)
فَسَبِّـحْ بِاسْمِ رَبِّكَ الْعَظِيمِ ﴿٥٢﴾
پس به نام پروردگارت تسبیح گوی. (۵۲)
سوره معارج
بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَٰنِ الرَّحِيمِ سَأَلَ سَائِلٌ بِعَذَابٍ وَاقِعٍ ﴿١﴾
به نام خدا که رحمتش بی اندازه است و مهربانی اش همیشگی.
درخواست کننده ای عذابی را که واقع شدنی است درخواست کرد، (۱)
لِلْكَافِرِينَ لَيْسَ لَهُ دَافِعٌ ﴿٢﴾
[عذابی که] ویژه کافران است، [و] آن را بازدارنده ای نیست. (۲)
مِنَ اللَّهِ ذِي الْمَعَارِجِ ﴿٣﴾
[این عذاب] از سوی خدای صاحب درجات است. (۳)
تَعْرُجُ الْمَلَائِكَةُ وَالرُّوحُ إِلَيْهِ فِي يَوْمٍ كَانَ مِقْدَارُهُ خَمْسِينَ أَلْفَ سَنَةٍ ﴿٤﴾
فرشتگان و روح در روزی که مقدارش پنجاه هزار سال است به سوی او بالا می روند. (۴)
فَاصْبِرْ صَبْرًا جَمِيلًا ﴿٥﴾
پس صبر کن صبری نیکو [صبری که در کنارش جزع و ناخشنودی نباشد.] (۵)
إِنَّهُمْ يَرَوْنَهُ بَعِيدًا ﴿٦﴾
دشمنان و مخالفان، آن [عذاب] را دور می بینند (۶)
وَنَرَاهُ قَرِيبًا ﴿٧﴾
و ما آن را نزدیک می بینیم. (۷)
يَوْمَ تَكُونُ السَّمَاءُ كَالْمُهْلِ ﴿٨﴾
روزی که آسمان چون فلز گداخته گردد (۸)
وَتَكُونُ الْجِبَالُ كَالْعِهْنِ ﴿٩﴾
و کوه ها مانند پشم رنگینِ حلاجی شده شود (۹)
وَلَا يَسْأَلُ حَمِيمٌ حَمِيمًا ﴿١٠﴾
و هیچ خویشاوند و دوست صمیمی از [اوضاع و احوال] خویشاوند و دوست صمیمی اش نپرسد! (۱۰)
يُبَصَّرُونَهُمْ ۚ يَوَدُّ الْمُجْرِمُ لَوْ يَفْتَدِي مِنْ عَذَابِ يَوْمِئِذٍ بِبَنِيهِ ﴿١١﴾
آنان را نشانشان می دهند [ولی به خاطر دل مشغولی خود هرگز به آنان توجه نکنند!] گنهکار آرزو می کند که ای کاش می توانست فرزندانش را در برابر عذاب آن روز فدیه و عوض دهد! (۱۱)
وَصَاحِبَتِهِ وَأَخِيهِ ﴿١٢﴾
و نیز همسر و برادرش را (۱۲)
وَفَصِيلَتِهِ الَّتِي تُؤْوِيهِ ﴿١٣﴾
و قبیله و قومش را که [در دنیا] به او پناه می دادند، (۱۳)
وَمَنْ فِي الْأَرْضِ جَمِيعًا ثُمَّ يُنْجِيهِ ﴿١٤﴾
و نیز همه کسانی را که در روی زمین اند تا [این فدیه و عوض] او را [از عذاب آن روز] نجات دهد! (۱۴)
كَلَّا ۖ إِنَّهَا لَظَىٰ ﴿١٥﴾
این چنین نیست [که برایش راه نجاتی باشد] همانا آتش زبانه می کشد، (۱۵)
نَزَّاعَةً لِلشَّوَىٰ ﴿١٦﴾
در حالی که دست و پا و پوست سر را بر می کند!! (۱۶)
تَدْعُو مَنْ أَدْبَرَ وَتَوَلَّىٰ ﴿١٧﴾
هر که را به حق پشت کرده واز دعوت حق روی گردانده، می طلبد، (۱۷)
وَجَمَعَ فَأَوْعَىٰ ﴿١٨﴾
و آن را که ثروت جمع کرده و به ذخیره سازی و انباشتن پرداخته، می خواند؛ (۱۸)
إِنَّ الْإِنْسَانَ خُلِقَ هَلُوعًا ﴿١٩﴾
همانا انسان حریص و بی تاب آفریده شده است؛ (۱۹)
إِذَا مَسَّهُ الشَّرُّ جَزُوعًا ﴿٢٠﴾
چون آسیبی به او رسد، بی تاب است، (۲۰)
وَإِذَا مَسَّهُ الْخَيْرُ مَنُوعًا ﴿٢١﴾
و هنگامی که خیر و خوشی [و مال و رفاهی] به او رسد، بسیار بخیل و بازدارنده است، (۲۱)
إِلَّا الْمُصَلِّينَ ﴿٢٢﴾
مگر نماز گزاران، (۲۲)
الَّذِينَ هُمْ عَلَىٰ صَلَاتِهِمْ دَائِمُونَ ﴿٢٣﴾
آنان که همواره بر نمازشان مداوم و پایدارند، (۲۳)
وَالَّذِينَ فِي أَمْوَالِهِمْ حَقٌّ مَعْلُومٌ ﴿٢٤﴾
و آنان که در اموالشان حقّی معلوم است (۲۴)
لِلسَّائِلِ وَالْمَحْرُومِ ﴿٢٥﴾
برای درخواست کننده [تهیدست] و محروم [از معیشت و ثروت،] (۲۵)
وَالَّذِينَ يُصَدِّقُونَ بِيَوْمِ الدِّينِ ﴿٢٦﴾
و آنان که همواره روز پاداش را باور دارند، (۲۶)
وَالَّذِينَ هُمْ مِنْ عَذَابِ رَبِّهِمْ مُشْفِقُونَ ﴿٢٧﴾
و آنان که از عذاب پروردگارشان بیمناکند، (۲۷)
إِنَّ عَذَابَ رَبِّهِمْ غَيْرُ مَأْمُونٍ ﴿٢٨﴾
زیرا که از عذاب پروردگارشان ایمنی نیست، (۲۸)
وَالَّذِينَ هُمْ لِفُرُوجِهِمْ حَافِظُونَ ﴿٢٩﴾
و آنان که دامنشان را [از آلوده شدن به شهوات حرام] حفظ می کنند، (۲۹)
إِلَّا عَلَىٰ أَزْوَاجِهِمْ أَوْ مَا مَلَكَتْ أَيْمَانُهُمْ فَإِنَّهُمْ غَيْرُ مَلُومِينَ ﴿٣٠﴾
مگر در کام جویی از همسران و کنیزانشان که آنان در این زمینه مورد سرزنش نیستند. (۳۰)
فَمَنِ ابْتَغَىٰ وَرَاءَ ذَٰلِكَ فَأُولَٰئِكَ هُمُ الْعَادُونَ ﴿٣١﴾
پس کسانی که در بهره گیری جنسی راهی غیر از این جویند، تجاوزکار از حدود حق اند، (۳۱)
وَالَّذِينَ هُمْ لِأَمَانَاتِهِمْ وَعَهْدِهِمْ رَاعُونَ ﴿٣٢﴾
و آنان که امانت ها و پیمان های خود را رعایت می کنند، (۳۲)
وَالَّذِينَ هُمْ بِشَهَادَاتِهِمْ قَائِمُونَ ﴿٣٣﴾
و آنان که بر ادای گواهی های خود پای بند و متعهدند، (۳۳)
وَالَّذِينَ هُمْ عَلَىٰ صَلَاتِهِمْ يُحَافِظُونَ ﴿٣٤﴾
و آنان که همواره بر [اوقات و شرایط ظاهری و معنوی] نمازهایشان محافظت دارند. (۳۴)
أُولَٰئِكَ فِي جَنَّاتٍ مُكْرَمُونَ ﴿٣٥﴾
اینان در بهشت ها، مکرّم و محترم اند (۳۵)
فَمَالِ الَّذِينَ كَفَرُوا قِبَلَكَ مُهْطِعِينَ ﴿٣٦﴾
کافران را چه شده که به تو چشم دوخته به سویت شتابانند؟ (۳۶)
عَنِ الْيَمِينِ وَعَنِ الشِّمَالِ عِزِينَ ﴿٣٧﴾
از راست و چپ، گروه گروه، (۳۷)
أَيَطْمَعُ كُلُّ امْرِئٍ مِنْهُمْ أَنْ يُدْخَلَ جَنَّةَ نَعِيمٍ ﴿٣٨﴾
آیا هر یک از آنان طمع دارد که او را در بهشت پرنعمت درآورند؟! (۳۸)
كَلَّا ۖ إِنَّا خَلَقْنَاهُمْ مِمَّا يَعْلَمُونَ ﴿٣٩﴾
این چنین نیست، ما آنان را از آنچه خود می دانند [آبی گندیده و بی مقدار] آفریدیم. (۳۹)
فَلَا أُقْسِمُ بِرَبِّ الْمَشَارِقِ وَالْمَغَارِبِ إِنَّا لَقَادِرُونَ ﴿٤٠﴾
به پروردگار مشرق ها و مغرب ها سوگند که ما تواناییم، (۴۰)
عَلَىٰ أَنْ نُبَدِّلَ خَيْرًا مِنْهُمْ وَمَا نَحْنُ بِمَسْبُوقِينَ ﴿٤١﴾
بر اینکه به جای آنان بهتر از آنان را بیاوریم؛ و هیچ چیز ما را مغلوب نمی کند. (۴۱)
فَذَرْهُمْ يَخُوضُوا وَيَلْعَبُوا حَتَّىٰ يُلَاقُوا يَوْمَهُمُ الَّذِي يُوعَدُونَ ﴿٤٢﴾
پس آنان را واگذار تا [در گفتار باطل] فرو روند و مشغول بازی باشند، تا روزشان را که به آنان وعده داده اند دیدار کنند، (۴۲)
يَوْمَ يَخْرُجُونَ مِنَ الْأَجْدَاثِ سِرَاعًا كَأَنَّهُمْ إِلَىٰ نُصُبٍ يُوفِضُونَ ﴿٤٣﴾
روزی که شتابان از خاک بیرون آیند، گویی به سوی نشانه های نصب شده می دوند، (۴۳)
خَاشِعَةً أَبْصَارُهُمْ تَرْهَقُهُمْ ذِلَّةٌ ۚ ذَٰلِكَ الْيَوْمُ الَّذِي كَانُوا يُوعَدُونَ ﴿٤٤﴾
درحالی که دیدگانشان [از شدت ترس] فرو افتاده، خواری و ذلت آنان را می پوشاند. این همان روزی است که همواره وعده داده می شدند. (۴۴)