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سطر ۱: |
− | {{متن قرآن/در جزء|75|1|﴿١﴾}}<p></p> | + | {{قرآن/صفحه و متن|104|1|﴿١﴾}}<p></P> |
− | به نام خدا که رحمتش بی اندازه است و مهربانی اش همیشگی. به روز قیامت سوگند می خورم، (۱)<p></p> | + | به نام خدا که رحمتش بی اندازه است و مهربانی اش همیشگی. وای بر هر عیب جوی بدگوی! (۱)<p></P> |
− | {{متن قرآن/در جزء|75|2|﴿٢﴾}}<p></p> | + | {{قرآن/صفحه و متن|104|2|﴿٢﴾}}<p></P> |
− | و به نفس سرزنش گر قسم می خورم. (۲)<p></p> | + | همان که ثروتی فراهم آورده و [پی در پی] آن را شمرد [و ذخیره کرد.] (۲)<p></P> |
− | {{متن قرآن/در جزء|75|3|﴿٣﴾}}<p></p> | + | {{قرآن/صفحه و متن|104|3|﴿٣﴾}}<p></P> |
− | آیا انسان گمان می کند که ما هرگز استخوان هایش را جمع نخواهیم کرد؟ (۳)<p></p>
| + | گمان می کند که ثروتش او را جاودانه خواهد کرد. (۳)<p></P> |
− | {{متن قرآن/در جزء|75|4|﴿٤﴾}}<p></p> | + | {{قرآن/صفحه و متن|104|4|﴿٤﴾}}<p></P> |
− | چرا در حالی که تواناییم که [خطوط] سر انگشتانش را درست و نیکو بازسازی کنیم، (۴)<p></p>
| + | این چنین نیست، بی تردید او را در آن شکننده، اندازند؛ (۴)<p></P> |
− | {{متن قرآن/در جزء|75|5|﴿٥﴾}}<p></p> | + | {{قرآن/صفحه و متن|104|5|﴿٥﴾}}<p></P> |
− | [نه اینکه به گمان او قیامتی در کار نباشد] بلکه انسان می خواهد [با دست و پا زدن در شک و تردید] فرارویش را [از اعتقاد به قیامت که بازدارنده ای قوی است] باز کند [تا برای ارتکاب هر گناهی آزاد باشد!] (۵)<p></p>
| + | و تو چه می دانی آن شکننده چیست؟ (۵)<p></P> |
− | {{متن قرآن/در جزء|75|6|﴿٦﴾}}<p></p> | + | {{قرآن/صفحه و متن|104|6|﴿٦﴾}}<p></P> |
− | [با حالتی آمیخته با تردید] می پرسد: روز قیامت چه وقت است؟ (۶)<p></p>
| + | آتش برافروخته خداست (۶)<p></P> |
− | {{متن قرآن/در جزء|75|7|﴿٧﴾}}<p></p> | + | {{قرآن/صفحه و متن|104|7|﴿٧﴾}}<p></P> |
− | پس هنگامی [است] که چشم [از سختی و هولناکی آن] خیره شود، (۷)<p></p>
| + | [آتشی] که بر دل ها برآید و چیره شود. (۷)<p></P> |
− | {{متن قرآن/در جزء|75|8|﴿٨﴾}}<p></p> | + | {{قرآن/صفحه و متن|104|8|﴿٨﴾}}<p></P> |
− | و ماه تاریک و بی نور گردد، (۸)<p></p>
| + | آن آتش بر آنان سربسته است [که هیچ راه گریزی از آن ندارند؛] (۸)<p></P> |
− | {{متن قرآن/در جزء|75|9|﴿٩﴾}}<p></p>
| + | {{قرآن/صفحه و متن|104|9|﴿٩﴾}}<p></P> |
− | و خورشید و ماه به هم جمع شوند. (۹)<p></p>
| + | [آتشی] در ستون هایی بلند و کشیده. (۹)<p></P> |
− | {{متن قرآن/در جزء|75|10|﴿١٠﴾}}<p></p>
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− | آن روز انسان گوید: گریزگاه کجاست؟ (۱۰)<p></p> | |
− | {{متن قرآن/در جزء|75|11|﴿١١﴾}}<p></p>
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− | این چنین نیست، هرگز پناهگاهی وجود ندارد. (۱۱)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|12|﴿١٢﴾}}<p></p>
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− | آن روزقرارگاه [نهایی] فقط به سوی پروردگار توست. (۱۲)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|13|﴿١٣﴾}}<p></p>
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− | آن روز است که انسان را به اعمالی که از دیرباز یا پس از آن انجام داده، آگاه می کنند. (۱۳)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|14|﴿١٤﴾}}<p></p>
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− | بلکه انسان خود به وضع خویش بیناست. (۱۴)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|15|﴿١٥﴾}}<p></p>
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− | و هر چند [برای توجیه گناهانش] بهانه ها بتراشد (۱۵)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|16|﴿١٦﴾}}<p></p>
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− | [پیش از پایان یافتن وحی به وسیله جبرئیل] زبانت را به حرکت در نیاور تا در خواندن آن شتاب ورزی. (۱۶)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|17|﴿١٧﴾}}<p></p>
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− | بی تردید گردآوردن و [به هم پیوند دادن آیات که بر تو وحی می شود و چگونگی] قرائتش بر عهده ماست، (۱۷)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|18|﴿١٨﴾}}<p></p>
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− | پس هنگامی که آن را [به طور کامل] خواندیم، [به همان صورت] خواندنش را دنبال کن. (۱۸)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|19|﴿١٩﴾}}<p></p>
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− | سپس توضیح و بیانش نیز بر عهده ماست. (۱۹)<p></p>
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− | {{قرآن/صفحه جزء| ۵۷۷}} | |
− | {{متن قرآن/در جزء|75|20|﴿٢٠﴾}}<p></p>
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− | [اینکه می پندارید قیامتی در کار نیست] این چنین نیست، بلکه شما عاشق ایندنیای زودگذر هستید، (۲۰)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|21|﴿٢١﴾}}<p></p>
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− | و همواره آخرت را [برای این عشق بی پایه] رها می کنید. (۲۱)<p></p> | |
− | {{متن قرآن/در جزء|75|22|﴿٢٢﴾}}<p></p>
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− | در آن روز چهره هایی شاداب است؛ (۲۲)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|23|﴿٢٣﴾}}<p></p>
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− | [با دیده دل] به پروردگارش نظر می کند (۲۳)<p></p> | |
− | {{متن قرآن/در جزء|75|24|﴿٢٤﴾}}<p></p>
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− | و چهره هایی عبوس و درهم کشیده است؛ (۲۴)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|25|﴿٢٥﴾}}<p></p>
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− | چون یقین دارند که در معرض عذابی کمرشکن قرار خواهند گرفت. (۲۵)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|26|﴿٢٦﴾}}<p></p>
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− | این چنین نیست [که می پندارد]، هنگامی که جان به گلوگاه رسد، (۲۶)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|27|﴿٢٧﴾}}<p></p>
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− | و [کسان بیمار] گویند: درمان کننده این بیمار کیست؟ (۲۷)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|28|﴿٢٨﴾}}<p></p>
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− | و [بیمار] یقین می کند [که با رسیدن جان به گلوگاه] زمان جدایی [از دنیا، ثروت، زن و فرزند] فرا رسیده است! (۲۸)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|29|﴿٢٩﴾}}<p></p>
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− | و [از سختی جان کندن] ساق به ساق به هم پیچد؛ (۲۹)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|30|﴿٣٠﴾}}<p></p>
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− | آن روز، روز سوق و مسیر به سوی پروردگار توست. (۳۰)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|31|﴿٣١﴾}}<p></p>
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− | [در آن حال فرشتگان می گویند: این به کام مرگ افتاده] نه [دعوت پیامبر را] باور کرد، و نه نماز خواند؛ (۳۱)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|32|﴿٣٢﴾}}<p></p>
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− | بلکه [در میان اجتماعات] تکذیب کرد و روی گرداند؛ (۳۲)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|33|﴿٣٣﴾}}<p></p>
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− | سپس متکبرانه و خرامان به سوی کسانش رفت. (۳۳)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|34|﴿٣٤﴾}}<p></p>
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− | [و گویند: با این وضعی که داری، عذاب دوزخ] برای تو شایسته تر است، شایسته تر! (۳۴)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|35|﴿٣٥﴾}}<p></p>
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− | باز هم شایسته تر است شایسته تر. (۳۵)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|36|﴿٣٦﴾}}<p></p>
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− | آیا انسان گمان می کند بیهوده و مهمل [و بدون تکلیف و مسؤولیت] رها می شود؟! (۳۶)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|37|﴿٣٧﴾}}<p></p>
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− | آیا نطفه ای از منی که در رحم ریخته می شود نبود؟ (۳۷)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|38|﴿٣٨﴾}}<p></p>
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− | سپس علقه شد و خدا او را آفرید و اندامش را درست و نیکو ساخت، (۳۸)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|39|﴿٣٩﴾}}<p></p>
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− | و از او دو زوج به وجود آورد یکی نر و دیگر ماده، (۳۹)<p></p>
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− | {{متن قرآن/در جزء|75|40|﴿٤٠﴾}}<p></p>
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− | آیا چنین نیرومند آگاهی توانا نیست که مردگان را زنده کند؟ (۴۰)
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بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَٰنِ الرَّحِيمِ وَيْلٌ لِكُلِّ هُمَزَةٍ لُمَزَةٍ
به نام خدا که رحمتش بی اندازه است و مهربانی اش همیشگی. وای بر هر عیب جوی بدگوی! (۱)
الَّذِي جَمَعَ مَالًا وَعَدَّدَهُ
همان که ثروتی فراهم آورده و [پی در پی] آن را شمرد [و ذخیره کرد.] (۲)
يَحْسَبُ أَنَّ مَالَهُ أَخْلَدَهُ
گمان می کند که ثروتش او را جاودانه خواهد کرد. (۳)
كَلَّا ۖ لَيُنْبَذَنَّ فِي الْحُطَمَةِ
این چنین نیست، بی تردید او را در آن شکننده، اندازند؛ (۴)
وَمَا أَدْرَاكَ مَا الْحُطَمَةُ
و تو چه می دانی آن شکننده چیست؟ (۵)
نَارُ اللَّهِ الْمُوقَدَةُ
آتش برافروخته خداست (۶)
الَّتِي تَطَّلِعُ عَلَى الْأَفْئِدَةِ
[آتشی] که بر دل ها برآید و چیره شود. (۷)
إِنَّهَا عَلَيْهِمْ مُؤْصَدَةٌ
آن آتش بر آنان سربسته است [که هیچ راه گریزی از آن ندارند؛] (۸)
فِي عَمَدٍ مُمَدَّدَةٍ
[آتشی] در ستون هایی بلند و کشیده. (۹)